Monday, November 18, 2013

आेमप्रकाश वाल्मीकि के आकस्मिक निधन पर



                                                            dated 18-11-2013
प्रेस विज्ञप्ति
जनवादी लेखक संघ हिंदी के जानेमाने दलित रचनाकार आेमप्रकाश वाल्मीकि के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। वे काफी समय से पेट के कैंसर से पीड़ित थे।
                  
आेमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून 1950 को उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में एक दलित परिवार में हुआ था। वे आर्डनेंस फैक्टरी से सेवानिवृत्त हो कर देहरादून में रह रहे थे। जब वे दिल्ली के सिटी अस्पताल में भरती थे, उनके इलाज के लिए जनवादी लेखक संघ ने संसाधन जुटाने की पहलकदमी की। उस समय उपचार से वे स्वस्थ भी हो गये थे, मगर बाद में उनकी हालत फिर से खराब हो गयी आैर 17 नवंबर को उनका देहावसान हो गया।
                 
उनकी मशहूर आत्मकथात्मक कृति, जूठन को साहित्यजगत में काफी सराहना मिली, इसके अलावा उनके तीन कवितासंग्रह, सदियों का संताप, बस!बहुत हो चुका, अब आैर नहीं, तथा दो कहानी संग्रह, सलाम आैर घुसपैठिये भी काफी चर्चित हुए। उन्होंने दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र और दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ जेसी सिद्धांतपरक किताबें भी लिखीं। सफाई देवता शीर्षक से वाल्मीकि समुदाय का इतिहास भी लिखा। वे एक प्रतिभाशाली रचनाकार थे। उनमें रचनात्मक क्षमता का लगातार विकास हो रहा था, उनके निधन से हिंदी साहित्य को काफी क्षति हुई है।
    
जनवादी लेखक संघ इस प्रिय लेखक को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है, आैर उनके परिवारजनों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता है।


Monday, November 11, 2013

राजेंद्र यादव की स्मृति में



राजेंद्र यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा दलित साहित्य कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सभा की

रिपोर्ट
दिनांक -8/11/13

नयी दिल्ली, 8 नवंबर : प्रसिद्ध कथाकार और हिंदी मासिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा दलित साहित्य कला केंद्र द्वारा एक सभा का आयोजन किया गया। शुरू में प्रलेस के महासचिव अली जावेद ने अपने संगठन की ओर से राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि दी, उसके बाद संचालन जलेस के महासचिव चंचल चौहान ने किया। इस अवसर पर डॉ निर्मला जैन ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि राजेंद्र यादव ने अपने लेखन के माध्यम से चुप लोगों को जुबान दी, लोगों के सवालों को ओझल नहीं होने दिया ठीक उसी तरह जैसे वे खुद को लोगों की निगाह से ओझल नहीं होने देते थे, हंस के माध्यम से कई नये रचनाकारों को स्थापित किया, वे और उनका हंस नहीं होता तों जितनी मजबूती के साथ स्त्री, दलित और साम्प्रदायिकता के सवाल दर्ज हुए वैसा न हो पाता, अपने इस काम में वे एक प्रतिबद्ध सिपाही कि तरह डेट रहे। रामशरण जोशी ने कहा कि यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि राजेंद्र यादव हमारे बीच नहीं रहे, वे कल आज और कल तीनो परिप्रेक्ष्य में महत्वपूपर्ण व्यक्ति थे, वे प्रगतिशील व्यक्ति थे लेकिन कठमुल्लापन उनमे नहीं था, उनका जाना हमारे वर्तमान राजनीतिक, सांप्रदायिक सवालों के संदर्भ में एक बड़ी ठेस है, वे एक ऐसे लेखक पत्रकार रहे जिन्होंने हाशिये के सवालों को केन्द्र में रखा, वे सच्चे अर्थो में एक पब्लिक इंटलेक्चुअल थे।
      अशोक चक्रधर ने उन्हें याद करते हुए कहा कि वे जिन्दा बातें करने बाले व्यक्तियों में से एक थे, वे एक पारदर्शी व्यक्ति थे, वे असहमति, अपवाद और अपनी आलोचना को भी स्वीकार करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार पिछले तीस साल का भारत का इतिहास भारत की कल्पना का इतिहास रहा है, हिंदी में इस पर राजेंद्र यादव ने अपनी हंस पत्रिका के माध्यम सबसे ज्यादा विचार किया और उसे एक रूप देने कि कोशिश की, उनसे जुड़ कर हर व्यक्ति मित्रता महसूस करता था।  डॉ: विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि राजेद्र यादव के नेतृत्व में हंस अपने आप में एक आंदोलन था, उन्होंने उसके नाम को गरिमा और सार्थकता प्रदान की, आजादी के बाद के दौर में इस तरह का एक्टिविस्ट संपादक कोई नहीं रहा, वे एक निरंतर प्रतिरोधी स्वर के व्यक्तित्व थे, वे आदमी को देवता बनाने के विरोधी थे, उन्होंने एक नया सौंदर्यबोध विकसित किया जो भारतीय मानस का अंग बन गया है। डॉ: मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि राजेंद्र यादव में व्यंग और विरोध की प्रवृति अधिक थी, वे एक जिंदादिल व्यक्ति थे। विश्वप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन सभा में मौजूद थीं, उन्होंने राजेंद्र जी की तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित की, उनकी लिखित श्रद्धांजलि भरत तिवारी ने पढ़ी। उनके अनुसार राजेद्र जी व्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक जिन्दा मिसाल थे। उन्होंने कहा कि वे मुझे एक पिता और मित्र की तरह लगते थे, एक प्रतिबंधित और संकट में फंसी लेखिका को उन्होंने हंस का मंच दिया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है। सजीव कुमार के अनुसार उनमे लोकतंत्रात्मक होने की उच्चतम डिग्री मौजूद थी। वे वर्तमान हिंदी समाज के एकमात्र लेखक रहे जिन्हें हिंदी के औपचारिक और अनौपचारिक पाठक अपनी तरह से याद करते हैं, उनके बारे में सबकी अपनी एक राय है। अपूर्वानंद के अनुसार वे एक ‘लिसनिंग पोस्ट’ की तरह थे जिनसे नौजवान पीढ़ी अपनी बात कहती थी, वे पहले व्यक्ति थे जो ‘पॉलिटिक्स ऑफ रिकॉग्निशन’ की बात करते थे।
दलित लेखक कला केन्द्र की ओर से दिलीप कटेरिया ने श्रद्धांजलि प्रदान की और कहा कि उन्होंने साहित्य में नयी परंपरा की नींव रखी, दलित और स्त्री लेखन को जमीन दी, उन्होंने जिस साहित्य परंपरा की नींव रखी हम उस आगे बढ़ायेंगे। सभा की अध्यक्षता करते हुए मैत्रेयी पुष्पा ने राजेंद्र यादव के साथ अपने लंबे समय के लेखकीय संबंध तथा विवादों, प्रतिवादों को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। उनके अनुसार राजेंद्र यादव ने करवाचौथ करती औरतों तथा स्त्री लेखिकाओं को जागरूक किया, विचार और लेखन के लिए प्रेरित किया, हम औरतों को उन्होंने बागी बना दिया, अनुभव हमारे थे रस्ते उन्होंने बताये कि किस तरफ जाना है। अंत में सुधीर सुमन ने शोक प्रस्ताव पेश किया, एक मिनट का मौन रखकर लेखकों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
                                                             प्रस्तुति : अरविन्द मिश्र

Tuesday, November 5, 2013

परमानंद श्रीवास्तव के आकस्मिक निधन पर



                          तारीख  5 नवंबर 2013
प्रेस विज्ञप्ति
जनवादी लेखक संघ हिंदी के जानेमाने रचनाकार आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है ।
     गोरखपुर के निकट बांसगांव में 9 फ़रवरी 1935 को जन्मे परमानंद श्रीवास्तव ने कविता, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में अपने लेखन से हिंदीजगत में अपनी पहचान बनायी । उनके कवितासंग्रहों में, उजली हंसी के छोर पर , अगली शताब्दी के बारे में , चौथा शब्द (1993), एक अनायक का वृतांत (2004) प्रमुख थे, उनका कहानी संग्रह, रुका हुआ समय 2005 में प्रकाशित हुआ था। आलोचना पुस्तकों में, नयी कविता का परिप्रेक्ष्य (1965), हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया (1965), कवि कर्म और काव्यभाषा (1975), उपन्यास का यथार्थ, रचनात्मक भाषा (1976), जैनेंद्र के उपन्यास (1976), समकालीन कविता का व्याकरण (1980), समकालीन कविता का यथार्थ (1980), शब्द और मनुष्य (1988), उपन्यास का पुनर्जन्म (1995), कविता का अर्थात (1999), कविता का उत्तरजीवन (2005) प्रमुख थीं। इनके अलावा उनकी प्रकाशित कृतियों में एक विस्थापित की डायरी (2005) तथा एक निबंधसंग्रह, अंधेरे कुएं से आवाज भी 2005 में ही प्रकाशित हुआ था। उन्होंने डॉ. नामवर सिंह के साथ लंबे समय तक स्वतंत्र रूप से साहित्यिक पत्रिका 'आलोचना' का संपादन भी किया था। उनको 'भारत भारती' तथा 'व्यास सम्मान' सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
जनवादी लेखक संघ ऐसे प्रतिभावान रचनाकार साथी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके परिवारजनों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है।

चंचल चौहान
महासचिव