Monday, November 18, 2013

आेमप्रकाश वाल्मीकि के आकस्मिक निधन पर



                                                            dated 18-11-2013
प्रेस विज्ञप्ति
जनवादी लेखक संघ हिंदी के जानेमाने दलित रचनाकार आेमप्रकाश वाल्मीकि के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। वे काफी समय से पेट के कैंसर से पीड़ित थे।
                  
आेमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून 1950 को उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में एक दलित परिवार में हुआ था। वे आर्डनेंस फैक्टरी से सेवानिवृत्त हो कर देहरादून में रह रहे थे। जब वे दिल्ली के सिटी अस्पताल में भरती थे, उनके इलाज के लिए जनवादी लेखक संघ ने संसाधन जुटाने की पहलकदमी की। उस समय उपचार से वे स्वस्थ भी हो गये थे, मगर बाद में उनकी हालत फिर से खराब हो गयी आैर 17 नवंबर को उनका देहावसान हो गया।
                 
उनकी मशहूर आत्मकथात्मक कृति, जूठन को साहित्यजगत में काफी सराहना मिली, इसके अलावा उनके तीन कवितासंग्रह, सदियों का संताप, बस!बहुत हो चुका, अब आैर नहीं, तथा दो कहानी संग्रह, सलाम आैर घुसपैठिये भी काफी चर्चित हुए। उन्होंने दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र और दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ जेसी सिद्धांतपरक किताबें भी लिखीं। सफाई देवता शीर्षक से वाल्मीकि समुदाय का इतिहास भी लिखा। वे एक प्रतिभाशाली रचनाकार थे। उनमें रचनात्मक क्षमता का लगातार विकास हो रहा था, उनके निधन से हिंदी साहित्य को काफी क्षति हुई है।
    
जनवादी लेखक संघ इस प्रिय लेखक को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है, आैर उनके परिवारजनों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता है।


Monday, November 11, 2013

राजेंद्र यादव की स्मृति में



राजेंद्र यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा दलित साहित्य कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सभा की

रिपोर्ट
दिनांक -8/11/13

नयी दिल्ली, 8 नवंबर : प्रसिद्ध कथाकार और हिंदी मासिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा दलित साहित्य कला केंद्र द्वारा एक सभा का आयोजन किया गया। शुरू में प्रलेस के महासचिव अली जावेद ने अपने संगठन की ओर से राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि दी, उसके बाद संचालन जलेस के महासचिव चंचल चौहान ने किया। इस अवसर पर डॉ निर्मला जैन ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि राजेंद्र यादव ने अपने लेखन के माध्यम से चुप लोगों को जुबान दी, लोगों के सवालों को ओझल नहीं होने दिया ठीक उसी तरह जैसे वे खुद को लोगों की निगाह से ओझल नहीं होने देते थे, हंस के माध्यम से कई नये रचनाकारों को स्थापित किया, वे और उनका हंस नहीं होता तों जितनी मजबूती के साथ स्त्री, दलित और साम्प्रदायिकता के सवाल दर्ज हुए वैसा न हो पाता, अपने इस काम में वे एक प्रतिबद्ध सिपाही कि तरह डेट रहे। रामशरण जोशी ने कहा कि यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि राजेंद्र यादव हमारे बीच नहीं रहे, वे कल आज और कल तीनो परिप्रेक्ष्य में महत्वपूपर्ण व्यक्ति थे, वे प्रगतिशील व्यक्ति थे लेकिन कठमुल्लापन उनमे नहीं था, उनका जाना हमारे वर्तमान राजनीतिक, सांप्रदायिक सवालों के संदर्भ में एक बड़ी ठेस है, वे एक ऐसे लेखक पत्रकार रहे जिन्होंने हाशिये के सवालों को केन्द्र में रखा, वे सच्चे अर्थो में एक पब्लिक इंटलेक्चुअल थे।
      अशोक चक्रधर ने उन्हें याद करते हुए कहा कि वे जिन्दा बातें करने बाले व्यक्तियों में से एक थे, वे एक पारदर्शी व्यक्ति थे, वे असहमति, अपवाद और अपनी आलोचना को भी स्वीकार करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार पिछले तीस साल का भारत का इतिहास भारत की कल्पना का इतिहास रहा है, हिंदी में इस पर राजेंद्र यादव ने अपनी हंस पत्रिका के माध्यम सबसे ज्यादा विचार किया और उसे एक रूप देने कि कोशिश की, उनसे जुड़ कर हर व्यक्ति मित्रता महसूस करता था।  डॉ: विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि राजेद्र यादव के नेतृत्व में हंस अपने आप में एक आंदोलन था, उन्होंने उसके नाम को गरिमा और सार्थकता प्रदान की, आजादी के बाद के दौर में इस तरह का एक्टिविस्ट संपादक कोई नहीं रहा, वे एक निरंतर प्रतिरोधी स्वर के व्यक्तित्व थे, वे आदमी को देवता बनाने के विरोधी थे, उन्होंने एक नया सौंदर्यबोध विकसित किया जो भारतीय मानस का अंग बन गया है। डॉ: मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि राजेंद्र यादव में व्यंग और विरोध की प्रवृति अधिक थी, वे एक जिंदादिल व्यक्ति थे। विश्वप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन सभा में मौजूद थीं, उन्होंने राजेंद्र जी की तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित की, उनकी लिखित श्रद्धांजलि भरत तिवारी ने पढ़ी। उनके अनुसार राजेद्र जी व्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक जिन्दा मिसाल थे। उन्होंने कहा कि वे मुझे एक पिता और मित्र की तरह लगते थे, एक प्रतिबंधित और संकट में फंसी लेखिका को उन्होंने हंस का मंच दिया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है। सजीव कुमार के अनुसार उनमे लोकतंत्रात्मक होने की उच्चतम डिग्री मौजूद थी। वे वर्तमान हिंदी समाज के एकमात्र लेखक रहे जिन्हें हिंदी के औपचारिक और अनौपचारिक पाठक अपनी तरह से याद करते हैं, उनके बारे में सबकी अपनी एक राय है। अपूर्वानंद के अनुसार वे एक ‘लिसनिंग पोस्ट’ की तरह थे जिनसे नौजवान पीढ़ी अपनी बात कहती थी, वे पहले व्यक्ति थे जो ‘पॉलिटिक्स ऑफ रिकॉग्निशन’ की बात करते थे।
दलित लेखक कला केन्द्र की ओर से दिलीप कटेरिया ने श्रद्धांजलि प्रदान की और कहा कि उन्होंने साहित्य में नयी परंपरा की नींव रखी, दलित और स्त्री लेखन को जमीन दी, उन्होंने जिस साहित्य परंपरा की नींव रखी हम उस आगे बढ़ायेंगे। सभा की अध्यक्षता करते हुए मैत्रेयी पुष्पा ने राजेंद्र यादव के साथ अपने लंबे समय के लेखकीय संबंध तथा विवादों, प्रतिवादों को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। उनके अनुसार राजेंद्र यादव ने करवाचौथ करती औरतों तथा स्त्री लेखिकाओं को जागरूक किया, विचार और लेखन के लिए प्रेरित किया, हम औरतों को उन्होंने बागी बना दिया, अनुभव हमारे थे रस्ते उन्होंने बताये कि किस तरफ जाना है। अंत में सुधीर सुमन ने शोक प्रस्ताव पेश किया, एक मिनट का मौन रखकर लेखकों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
                                                             प्रस्तुति : अरविन्द मिश्र

Tuesday, November 5, 2013

परमानंद श्रीवास्तव के आकस्मिक निधन पर



                          तारीख  5 नवंबर 2013
प्रेस विज्ञप्ति
जनवादी लेखक संघ हिंदी के जानेमाने रचनाकार आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है ।
     गोरखपुर के निकट बांसगांव में 9 फ़रवरी 1935 को जन्मे परमानंद श्रीवास्तव ने कविता, कहानी और आलोचना के क्षेत्र में अपने लेखन से हिंदीजगत में अपनी पहचान बनायी । उनके कवितासंग्रहों में, उजली हंसी के छोर पर , अगली शताब्दी के बारे में , चौथा शब्द (1993), एक अनायक का वृतांत (2004) प्रमुख थे, उनका कहानी संग्रह, रुका हुआ समय 2005 में प्रकाशित हुआ था। आलोचना पुस्तकों में, नयी कविता का परिप्रेक्ष्य (1965), हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया (1965), कवि कर्म और काव्यभाषा (1975), उपन्यास का यथार्थ, रचनात्मक भाषा (1976), जैनेंद्र के उपन्यास (1976), समकालीन कविता का व्याकरण (1980), समकालीन कविता का यथार्थ (1980), शब्द और मनुष्य (1988), उपन्यास का पुनर्जन्म (1995), कविता का अर्थात (1999), कविता का उत्तरजीवन (2005) प्रमुख थीं। इनके अलावा उनकी प्रकाशित कृतियों में एक विस्थापित की डायरी (2005) तथा एक निबंधसंग्रह, अंधेरे कुएं से आवाज भी 2005 में ही प्रकाशित हुआ था। उन्होंने डॉ. नामवर सिंह के साथ लंबे समय तक स्वतंत्र रूप से साहित्यिक पत्रिका 'आलोचना' का संपादन भी किया था। उनको 'भारत भारती' तथा 'व्यास सम्मान' सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
जनवादी लेखक संघ ऐसे प्रतिभावान रचनाकार साथी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके परिवारजनों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है।

चंचल चौहान
महासचिव



















Tuesday, October 29, 2013

राजेंद्र यादव के आकस्मिक निधन पर

                 जनवादी लेखक संघ
                                                  केंद्रीय कार्यालय
                                 42 अशोक रोड, नयी दिल्ली-110001
                              फोन: 23738015, ई मेल: jlscentre @ yahoo.com
                                                                                                            


                                                                                                                       दिनांक 29 अक्टूबर 2013


                                        प्रेस विज्ञप्ति

जनवादी लेखक संघ हिंदी के जाने माने कथाकार राजेंद्र यादव के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। नयी कहानी के दौर के चोटी के कथाकार राजेंद्र यादव अपने पूरे जीवन में रचनात्मक साहित्य सृजन व साहित्यिक पत्रकारिता में जुट कर हमारी सांस्कृतिक परंपरा को समृद्ध करने में तथा जनवादी मूल्यों को समाज में विकसित करने में अपना अमूल्य योगदान देते रहे। वे जनवादी लेखक संघ के गठन के समय से ही उसके केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा रहे। वे इस समय जलेस के उपाध्यक्ष थे। उन्होंने दलित साहित्य व नारी लेखन को हिंदी साहित्य में अपने "हंस" के माध्यम से गरिमा प्रदान की तथा इस तरह के लेखन को रचनात्मकता के केंद्र में ला दिया। हिंदी साहित्य को उनका यह योगदान हमेशा याद रहेगा।
    जनवादी लेखक संघ अपने इस प्रिय लेखक को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है तथा शोक संतप्त परिवारजनों व मित्रों के साथ अपनी संवेदना प्रकट करता है।

                                                                                                  चंचल चौहान
                                                                                                     महासचिव

Friday, October 18, 2013

प्रो. गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे नहीं रहे


 प्रेस विज्ञप्ति
           जनवादी लेखक संघ जाने माने मराठी नाटककार, लेखक और चिंतक प्रो. गोविंद पुरुषात्तम देशपांडे के निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। प्रो. देशपांडे को 15 जुलाई को ब्रेनहेमरेज हुआ था, तब से वे गंभीर अचेत अवस्था में पुणे के एक अस्पताल में दाखि़ल रहे, मगर उन्हें बचाया न जा सका, 16 अक्टूबर की रात को उनका देहावसान हो गया। वे 75 बरस के थे।
               प्रो. देशपांडे जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में पूर्वी एशिया अध्ययन केंद्र मे चीन के मसलों के विशेषज्ञ के तौर पर 2004 तक अध्यापन करते रहे और उसके बाद सेवानिवृत्त हो कर पुणे मे रहने चले गये। उन्होंने एक मेधावान और सक्रिय लेखक के रूप में अपनी पहचान अर्जित की। उन्होंने तीन दशक तक इक्नामिक एंड पोलिटिकल वीकली में नियमित कालम लिखा, अंग्रेजी में ज्यातिबा फुले के लेखन को संपादित किया, साहित्य अकादमी के लिए अंग्रेजी में माडर्न ड्रामा का संकलन तैयार किया। अंग्रेजी में उनका काफी सारा लेखन किताबों के रूप में प्रकाशित हो चुका है। वे मशहूर अंग्रेजी पत्रिका जर्नल आफ आर्ट्स एंड आइडियाज़ के संस्थापक संपादक भी रहे। एक नाटककार के तौर पर भी उन्हें काफी ख्याति हासिल हुई। उनके नाटकों में उध्वस्त धर्मशाला, अंधार यात्रा, रास्ते, सत्यशोधक आदि बहुत मशहूर हुए और उनके मंचन में नामीगिरामी रंगकर्मियों और अदाकारों ने शिरकत की। जनवादी लेखक संघ को उनका अपार स्नेह सदैव हासिल रहा।
     जनवादी लेखक संघ प्रो. देशपांडे को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके परिवारजनों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है।
 चंचल चौहान
महासचिव

Tuesday, July 23, 2013

नया पथ का नया विशेषांक (जनवरी_जून 2013)

   
                     हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ बरस पर केंद्रित



अनुक्रम
संपादकीय / 3
खंड एक : जन्मशती पर विशेष
बलराज साहनी : जो बात तुझमें है... : चंदन श्रीवास्तव / 11
बलराज साहनी : एक प्रतिबद्ध... : जवरीमल्ल पारख / 20
गीतकार नरेंद्र शर्मा : कांतिमोहन सोज़ / 24

खंड दो : सिनेमा का मिज़ाज

जन सिनेमा की तलाश : जॉर्ज सेनजिनेस / 37
अभिनय-कला : बलराज साहनी / 43
बहुलोकप्रिय सिनेमा की सांस्कृतिक... : आशीष नंदी / 48
भाषा का सवाल : फि़ल्मी सदी का पैग़ाम : रविकांत / 61
साहित्य और सिनेमा के नाजुक रिश्ते : विनोद भारद्वाज / 73
साहित्य को सिनेमा में लाने के लिए... : मानवेंद्र सिंह / 76
परछाइयों की सल्तनत ... : कमलेश पांडे / 79
छद्म की लोकप्रियता और सिनेमा : प्रमोद कुमार तिवारी / 83
सिनेमा में ध्वनि तकनीक का उपयोग : वेद चंद मदेसिया / 91
टेक्नोलॉजी के नये दौर में सिनेमा... : संजय जोशी / 96
फि़ल्मों की वितरण व्यवस्था : अजय ब्रह्मात्मज / 105

खंड तीन : सिनेमा का सफ़र
श्रीकृष्ण जन्म : एक दुर्लभ फि़ल्म : पी.के. नायर / 111
प्रभात टच : उज्ज्वल उत्कर्ष / 116
आशंकाओं और उम्मीदों का संसार : जवरीमल्ल पारख / 129
ग्रामीण यथार्थ पर बनी दो फि़ल्में... : विनोद दास / 147
एक अकेला थक जायेगा... : शशांक दुबे / 156
सार्वकालिकता के पचास साल... : पुखराज जांगिड़ / 168
फि़ल्मों में साहित्य और लेखक... : शरद दत्त / 181
कविता में ‘सिनेमाई बिंब’ की तलाश : दिलीप शाक्य / 186
बेघर संसार की पुकार : कृष्ण कुमार / 193
सातवें-आठवें दशक का सिनेमा... : अरविंद कुमार / 199
समानांतर सिनेमा आंदोलन : एक नयी परंपरा की खोज : मानवेंद्र सिंह / 206
समानांतर सिनेमा और दलित चेतना : सत्यदेव त्रिपाठी / 215
दलित यथार्थ और सिनेमा : प्रमोद मीणा / 225
वीरा हार को अभिशप्त है क्यों : अकबर महफ़ूज़ आलम रिज़वी / 236
औरत का दमन और प्रतिरोध.. : प्रताप सिंह / 241
वैकल्पिक सिनेमा में सशक्त स्त्री निगाह : सुधीर सुमन / 248
जाने कहां आ गये हैं हम : निलय उपायाय / 254
आज का सिनेमा और आगे का सिनेमा : असग़र वजाहत / 259
बांबे टाकीज़ : कुछ अधूरे नोट्स : राजेंद्र शर्मा / 263

खंड चार : सिने मौसीक़ी

फि़ल्म संगीत का इतिहास : दो दस्तावेज़ : रविकांत / 273
सिने-संगीत इंद्र का घोड़ा है : आकाशवाणी उसका सम्मान करती है : नरेंद्र शर्मा / 276
कार्टून-चित्र / 282
सिनेमा के लिए रेडियो : लीलाधर मंडलोई / 284
हिंदुस्तानी फि़ल्म गायकी और स्त्री-विमर्श : अशरफ़ अज़ीज़ / 289
पचास के दशक में बंबइया फि़ल्मी गाने : शिखा झगन / 298
फि़ल्मों में शास्त्रीय संगीत : कुलदीप कुमार / 304

खंड पांच : सिने माहौल

राज कपूर और मेरे संगम की वह शाम... : अरविंद कुमार / 309
‘मोहन पिक्चर पैलेस’ से ‘बांबे टाकीज़’ तक : औचक शुरू हुई यात्रा... : रवींद्र त्रिापाठी / 315
दास्तान-ए-वैशाली : संजीव कुमार / 322
सिनेमा : चार तजुर्बे : रवीश कुमार / 334
सिनेब्लॉगबाज़ी : विनीत कुमार / 340
खंड छह : सिने पत्रकारिता
फि़ल्म पत्रिकाओं का इतिहास : राम मुरारी / 349
पन्ने पर बोलपट : विभास वर्मा / 355

मूल्य : एक प्रति : 150 रुपये,  (डाक से मंगाने पर 55 रुपये अतिरिक्त)
संपर्क :  संपादक, नया पथ, 42 अशोक रोड, नयी दिल्ली_110001, 
फोन 011-23738015 Mobile: 09811119391

Saturday, June 29, 2013

श्रद्धांजलि सभा



   डा0 शिवकुमार मिश्र के निधन पर श्रद्धांजलि सभा

नयी दिल्ली 28 जून : जनवादी लेखक संघ द्वारा नयी दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के हाल में आयोजित सभा में राजधानी क्षेत्र के सभी जाने माने लेखकों ने पिछले सप्ताह दिवंगत हुए प्रो0 शिवकुमार मिश्र को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि  अर्पित की। सबसे पहले जलेस के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने मंच पर नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडेय व असग़र वजाहत को बुलाया और जलेस केंद्र की ओर से दिवंगत जलेस अध्यक्ष मिश्र जी को श्रद्धासुमन अर्पित किये, और उनकी बीमारी व इलाज आदि की जानकारी देते हुए उनके साथ अपने संबंधों व उनके लेखन व उनकी प्रतिबद्धता का उल्लेख किया। उसके बाद प्रोजेक्टर के माध्यम से स्क्रीन पर शिवकुमार जी को जलेस केंद्र द्वारा आयोजित नागार्जुन जन्मशती के अवसर बोलते हुए दिखाया गया जिससे ऐसा लगा मानो वे हाल में ही हैं। उसके बाद मंच का संचालन जलेस के महासचिव चंचल चौहान ने किया, सबसे पहले जाने माने हिंदी कवि दिनेश शुक्ल ने मिश्र जी को याद करते हुए कहा कि वे उन्हीं के गांव के पास के थे, मैंने अपनी ज़मीन को उन्हीं के माध्यम से जाना। विश्वनाथ त्रिपाठी ने प्रलेस की ओर से अपनी श्रद्धांजलि दी, रेखा अवस्थी ने उन्हें एक कामरेड, एक बड़े भाई और अपनी ही बोली बानी के एक लेखक के रूप में उन्हें याद किया और कहा कि उनकी प्रतिबद्धता हमारी धरोहर है, उनकी इसी प्रतिबद्धता को आगे बढ़ाना सच्ची श्रद्धांजलि होगी। राजेंद्र यादव अस्वस्थ होते हुए भी सभा में आये और कहा कि मिश्र जी एक चिंतक विचारक विद्वान थे, बहस में निस्संकोच हिस्सा लेते थे। जवरीमल्ल पारख ने कहा कि वे अपने विचार सुगठित भाषा में रखते थे, युवा लेखकों को सुनते और उनकी प्रशंसा करते थे, उन्हें प्रेरित करते थे। रमणिका गुप्ता ने 1997 में हजारीबाग में आयोजित जलेस के एक समारोह में हुई मुलाक़ात से ले कर मौजूदा समय तक उनसे मिलने वाली आत्मीयता और साथीपन की भावना का उल्लेख किया। असग़र वजाहत ने उन्हें याद करते हुए कहा कि वे बराबरी के स्तर पर सबसे मिलते और बातचीत करते थे, उनमें एक जीवंतता थी जिससे वे हमें प्रेरित करते थे। इफको के निवर्तमान राजभाषा निदेशक घनशाम दास ने अपने लंबे संबंधों का उल्लेख करते हुए कहा कि उनके घर पर पत्रिकाओं के पुराने से पुराने अंक हैं, वे हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं, उनकी इस धरोहर को संजोना हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जाने माने कवि उदभ्रांत ने अपने लंबे साहचर्य का हवाला देते हुए अपने उदगार व्यक्त किये।
    केदारनाथ सिंह ने बताया कि उनके निधन के दूसरे दिन इलाहाबाद में आयोजित एक शोक सभा में शामिल होते समय यह अनुभव हुआ कि मिश्र जी किस तरह युवा लेखकों के अपने अपने शिवकुमार मिश्र थे, उनका स्नेह उन सबको मिला होगा, भूलने के इस दौर में स्मृतिसंपन्न व्यक्ति थे। रवींद्र त्रिपाठी ने कहा कि वे अपनी अडिग प्रतिबद्धता के लिए हमेशा याद किये जायेंगे।
    दिल्ली जलेस की तरफ़ से बली सिंह ने श्रद्धासुमन अर्पित किये और सामान्यजन के प्रति उनके प्रेम का उल्लेख किया। सुधा सिंह ने कहा कि वे ऐसे लेखक थे जिनसे बिना संकोच मिला जा सकता था, जनतांत्रिक आचरण करना मुश्किल होता है, वे इस कसौटी पर खरे उतरते थे। कांतिमोहन ने कहा कि वे पहले लेखक थे जो प्रलेस छोड़कर जलेस में आये थे, इस तरह वे प्रलेस और जलेस के बीच की एक कड़ी थे। भगवान सिंह ने कहा कि वे अपने विचारों में जितने स्पष्ट थे, उतने ही धैर्य से दूसरों को भी सुनते थे।
मैनेजर पांडेय ने 1975 में सतना में हुए प्रलेस सम्मेलन में मुक्तिबोध की इतिहास की पुस्तक से प्रतिबंध हटाने के प्रस्ताव के समर्थन में बोलने वाले मिश्र जी को याद किया। वे अपने लेखन और बातचीत में संतुलन बरतते थे, मगर दुविधा की भाषा नहीं बोलते थे। वे किसी अन्य संगठन के बारे में आक्रामक रवैया अख्ति़यार नहीं करते थे। उनका जाना एक आधार का टूटना है।
नामवर सिंह ने कहा कि उनका जाना मेरे लिए एक अप्रत्याशित घड़ी है। वल्लभविद्यानगर में तीन महीने रहने के दौरान उन्हें नजदीक से जानने का अवसर मिला था। वे अपनी मान्यताओं को ले कर स्पष्ट थे, उनमें एक साफगोई थी । गुजरात में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने में उनकी एक भूमिका थी, वहां के लोगों के बीच उनका बडा आदर था।
 अंत में दो प्रस्ताव पेश किये गये, पहला प्रस्ताव जवरीमल्ल पारख ने उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा में मारे गये इंसानों के प्रति लेखकों की श्रद्धांजलि के रूप में पेश किया और दूसरा प्रस्ताव शिवकुमार मिश्र के देहावसान पर शोक व्यक्त करते हुए और उनके परिवारजनों के प्रति दिल्ली राजधानी क्षेत्र के लेखकों की संवेदनाएं संप्रेषित करते हुए संजीव कुमार ने पेश किया। उपस्थित जनों ने एक मिनट का मौन रख कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दी।